व्यक्ति के दुखों का मूल  कारण अज्ञान है । व्यक्ति का जन्म प्रमुखतया ज्ञान  हेतु ही हुआ है । परन्तु  अपने विवेक को प्रधानता न दे पाने के कारण या  दुनिया जैसी है उसी तरह से  देखने के कारण और सत्संग साधू जनों के संग से  वंचित रहने के कारण व्यक्ति  इस नश्वर अनित्य असत्य और असत संसार को ही  सबकुछ मान लेता है और फिर  परमात्मा से दूर हो जाता है । वो ये भूल जाता है  की वो मुसाफिर है और संसार  में चंद दिनों के लिए ही आया है उसका ध्येय  प्रभु प्राप्ति है और वो उसी  से विमुख हो गया । ये सारा जगत परमात्मा का ही  एक रूप है । बेकार ही किसी से  राग द्वेष रखना बेकार ही किसी बात से दुखित  होना क्यूंकि द्रश्यमान जो भी  है असत है जो नहीं दिख रहा वोही सत है । इसलिए  संसार के दुखों से भी विचलित न  हो और सुखों में भी बहता न जाए क्यूँकी  संसार स्वयं में दुःख का स्वरुप  है खासकर तब जब हम इससे संसारी सुख लेना चाहते हैं । कारण स्पष्ट है की विनाशशील से हमे अविनाशी सुख नहीं मिल सकता । क्यूंकि जो चीज़ स्वयं ही कुछ काल के लिए हो उससे अनंत काल (वास्तविक ) का सुख नहीं मिल सकता वो तो सिर्फ अविनाशी अथार्त इश्वर से ही मिल सकता है । जिस भी व्यक्ति स्थति परिस्थति विचार से  हमे आनंद मिलता है या किसी को  भी मिला है उसे उसी से बाद में दुःख मिलने  लगता है और व्यक्ति स्वयं आनंद  का भण्डार होते हुए भी अज्ञानवश दुःख उठाता  है ।
अपने  स्वरुप अथार्त आत्मा से विलग होकर शरीर को ही स्वयं का स्वरुप मानना  ही  अज्ञान है और इस शरीर को सुख देने वाली इन्द्रियाँ मन बुद्धि को भी अपना   मानना अज्ञानता को और दृढ़ और मज़बूत करना है ।
कारण  बहुत स्पष्ट है की आत्मा अविकारी है परमात्मा का अंश है । उसमे विकार आ  ही  नहीं सकता उसी की सत्ता से मन बुद्धि इन्द्रियां आदि प्रकाशमान होते हैं   । आत्मा   शाश्वत है उसे संसारी नहीं अनिश्वर तत्त्व ही आनंद प्रदान कर सकता है और वो   है स्वयं आत्मा में स्थित होना,परमात्मा से एकाकार होना  लेकिन ये कैसी   विडम्बना की जीव शरीर को अपना स्वरुप मानकर प्रकाशमान होते हुए भी प्रकाशित (मन,बुद्धि,इन्द्रियां) के  वश हो कर अपनी   शाश्वतता को छोड़कर पतन चुन लेता है और परमात्मा की जगह संसार को ही अपना   मान लेता है और ये सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।
परन्तु विवेकशील अथवा ज्ञानी  ज़िन्दगी के रंगमंच पर हर परिस्थिति से हँसते हुए निपटता है क्यूंकि वो उसे भी परमात्मा की कृपा ही समझता है । वास्तव में वासुदेव: सर्वम अथार्त सब कुछ परमात्मा ही है । चाहे वो सुख दुःख हो या फिर इन्द्रिय,मन,बुद्धि यही परमात्मा को तत्त्व से जानना है । अतः जब सब जगह परमात्मा है तो सब जगह सत ही है । ऐसा जानकार व्यक्ति मायाबद्ध नहीं रहता उसे संसार के असत तत्त्व का ज्ञान हो जाता है ।
नासतो विध्ह्यते भावों न भावों विद्यते सत:(गीता २/16 )
अर्थ : असत की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है ।
सही विश्लेषण। आपसे सहमत।
ReplyDeleteसटीक लिखा है आपने! ज्ञानवर्धक पोस्ट!
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति. "हे प्रभु आनंद दाता ज्ञान हमको दीजिये"
ReplyDeleteग्यान वर्धक आलेख..
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