Saturday 12 November 2011

व्यक्ति के दुखों का मूल कारण अज्ञान है ।

व्यक्ति के दुखों का मूल कारण अज्ञान है । व्यक्ति का जन्म प्रमुखतया ज्ञान हेतु ही हुआ है । परन्तु अपने विवेक को प्रधानता न दे पाने के कारण या दुनिया जैसी है उसी तरह से देखने के कारण और सत्संग साधू जनों के संग से वंचित रहने के कारण व्यक्ति इस नश्वर अनित्य असत्य और असत संसार को ही सबकुछ मान लेता है और फिर परमात्मा से दूर हो जाता है । वो ये भूल जाता है की वो मुसाफिर है और संसार में चंद दिनों के लिए ही आया है उसका ध्येय प्रभु प्राप्ति है और वो उसी से विमुख हो गया । ये सारा जगत परमात्मा का ही एक रूप है । बेकार ही किसी से राग द्वेष रखना बेकार ही किसी बात से दुखित होना क्यूंकि द्रश्यमान जो भी है असत है जो नहीं दिख रहा वोही सत है । इसलिए संसार के दुखों से भी विचलित न हो और सुखों में भी बहता न जाए क्यूँकी संसार स्वयं में दुःख का स्वरुप है खासकर तब जब हम इससे संसारी सुख लेना चाहते हैं । कारण स्पष्ट है की विनाशशील से हमे अविनाशी सुख नहीं मिल सकता । क्यूंकि जो चीज़ स्वयं ही कुछ काल के लिए हो उससे अनंत काल (वास्तविक ) का सुख नहीं मिल सकता वो तो सिर्फ अविनाशी अथार्त इश्वर से ही मिल सकता है । जिस भी व्यक्ति स्थति परिस्थति विचार से हमे आनंद मिलता है या किसी को भी मिला है उसे उसी से बाद में दुःख मिलने लगता है और व्यक्ति स्वयं आनंद का भण्डार होते हुए भी अज्ञानवश दुःख उठाता है ।
अपने स्वरुप अथार्त आत्मा से विलग होकर शरीर को ही स्वयं का स्वरुप मानना ही अज्ञान है और इस शरीर को सुख देने वाली इन्द्रियाँ मन बुद्धि को भी अपना मानना अज्ञानता को और दृढ़ और मज़बूत करना है ।
कारण बहुत स्पष्ट है की आत्मा अविकारी है परमात्मा का अंश है । उसमे विकार आ ही नहीं सकता उसी की सत्ता से मन बुद्धि इन्द्रियां आदि प्रकाशमान होते हैं । आत्मा शाश्वत है उसे संसारी नहीं अनिश्वर तत्त्व ही आनंद प्रदान कर सकता है और वो है स्वयं आत्मा में स्थित होना,परमात्मा से एकाकार होना लेकिन ये कैसी विडम्बना की जीव शरीर को अपना स्वरुप मानकर प्रकाशमान होते हुए भी प्रकाशित (मन,बुद्धि,इन्द्रियां) के  वश हो कर अपनी शाश्वतता को छोड़कर पतन चुन लेता है और परमात्मा की जगह संसार को ही अपना मान लेता है और ये सिलसिला अनवरत चलता रहता है ।
परन्तु विवेकशील अथवा ज्ञानी ज़िन्दगी के रंगमंच पर हर परिस्थिति से हँसते हुए निपटता है क्यूंकि वो उसे भी परमात्मा की कृपा ही समझता है । वास्तव में वासुदेव: सर्वम अथार्त सब कुछ परमात्मा ही है । चाहे वो सुख दुःख हो या फिर इन्द्रिय,मन,बुद्धि यही परमात्मा को तत्त्व से जानना है । अतः जब सब जगह परमात्मा है तो सब जगह सत ही है । ऐसा जानकार व्यक्ति मायाबद्ध नहीं रहता उसे संसार के असत तत्त्व का ज्ञान हो जाता है ।

नासतो विध्ह्यते भावों न भावों विद्यते सत:(गीता २/16 )
अर्थ : असत की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव विद्यमान नहीं है ।

Tuesday 8 November 2011

द्रष्टिकोण


व्यक्ति का द्रष्टिकोण अथार्त नजरिया व्यक्ति के व्यक्तित्व का मानक होता है ।  व्यक्ति की सोच उसके दर्पण के सामान होती है जैसा वो सोचता है वैसा ही उसका भविष्य हो जाता है ! व्यक्ति का चिंतन ही उसके जीवन की दिशा स्पष्ट करता है,जीवन को दशा देता है । जिस तरह स्थूल इन्द्रियाँ(हाथ,पैर,कान  ) सूक्ष्म इन्द्रियों (मन,बुद्धि )से संचालित होती हैं उसी तरह व्यक्ति का आने वाला पल व्यक्ति के आज के चिंतन पर निर्भर करता है ।
व्यक्ति से ही समाज बनता है अतः व्यक्ति का द्रष्टिकोण समाज में भी महती भूमिका निभाता है । समाज के उत्थान व पतन में व्यक्ति की सोच का ही पूरा पूरा योगदान होता है ।
द्रष्टिकोण कई बातों पर निर्भर करता है या ये कहें की द्रष्टिकोण के भी कई मानक होते हैं ।  निश्चित तौर पर परिणामों की गुणवत्ता का द्रष्टिकोण से सीधा सम्बन्ध होता है ।
भौतिक जगत के साथ आध्यात्मिक जगत भी है, अथार्त एक तो जो बाहरी दुनिया है और एक व्यक्ति की आतंरिक दुनिया होती है जिसमे अमूमन व्यक्ति ज्यादा से ज्यादा महत्व स्वयं के अध्ययन अथार्त आत्म अध्ययन को देता है ।  बाहरी दुनिया के प्रति द्रष्टिकोण व आतंरिक दुनिया,अंतर्मन के प्रति द्रष्टिकोण व्यवहारिक तौर से भिन्न लग सकते हैं लेकिन केंद्रीय तौर (उसूली तौर) पर भिन्न नहीं होने चाहिए । 
हमारा चिंतन कितना सार्थक,सकारात्मक है ये हमारी व्यापक सोच व शान्ति,अहिंसा,सहिष्णुता,मानवता व सहज वृत्ति को आधार लेने की गंभीरता पर निर्भर करता है । 
अपने द्रष्टिकोण की समय समय पर की गयी समीक्षा ही व्यक्ति के द्रष्टिकोण का आंकलन करती है और उसके द्रष्टिकोण को परिष्कृत करती है ।  बिना समीक्षा के व्यक्ति द्रष्टिकोण के आधार बिन्दुओं से भटककर पतानोंमुख हो सकता है ।  व्यक्ति की अध्यात्मिक प्रगति भी उसके अपने अच्छे द्रष्टिकोण को व्यवहार में लाने पर ही निर्हर करती है ।  व्यावहारिक जगत व आध्यात्मिक जगत में अलग अलग द्रष्टिकोण अपनाकर ही व्यक्ति सबसे बड़ी ग़लती करता है । यानी जैसे हम जानते हैं की सभी आत्मा हैं लेकिन व्याव्जारिक जगत में अथार्त लोगों से व्यवहार करते हुए हमे उन्हें उनके नाम से ही संबोधन करना पड़ता है जबकि सब का स्वरुप आत्मा है लेकिन हम उन्हें शरीर मान लें या इस संसार में रहते रहते असत को सत्य मान लें यही ग़लती है क्यूंकि फिर हम अपने द्रष्टिकोण के सबसे बुनियादी मानक से ही भटक जायेंगे व स्वयं का स्वरुप भी शरीर(नाशवान) ही मानने लगेंगे ।
इस तरह से हम अपने अविनाशी व अविकारी स्वरुप को भूलकर स्वार्थ,काम,क्रोध,मद,लोभ,इर्ष्या जैसे विकार अपने में मानने लगेंगे और हमारे द्रष्टिकोण को ये विकार जाने-अनजाने  विकारोंमुख करेंगे  ।
ऐसा होने पर हमारे द्रष्टिकोण के मानक बदलने लगेंगे निम्न होते चले जायेंगे क्यूंकि फिर हम वस्तुवादिता को प्रधानता देने लगेंगे और वैसा ही पतनोंमुख द्रष्टिकोण बनाते चले जायेंगे ।  या फिर व्यावहारिक जगत व आध्यात्मिक जगत में अलग अलग द्रष्टिकोण रखेंगे और इस तरह से अपने आध्यात्मिक स्तर पर बहुत धीरे धीरे बढ़ पायेंगे वो भी तब जब जागरूक रहें ।  जबकि इसी उदहारण में व्यक्ति व्यावहारिक जगत में आम व्यवहार
करे बस अंतर्मन में सभी का स्वरुप आत्मा(अविनाशी,अविकारी ) समझे व संसार को नाशवान (असत)  तो अपने बुनियादी द्रष्टिकोण से नहीं भटकेगा व बेहतर तरह से व्यावहारिक व आध्यात्मिक जगत में बढ़ सकेगा ।
इस तरह से व्यक्ति का द्रष्टिकोण ही व्यक्ति के मूल आनंद अथार्त परमानन्द (परमात्मतत्त्व) की प्राप्ति में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।